ख्वाहिशो सफ़र था
...... और तुम मिल गये !
ज़िंदगी को जैसे ......
पर मिल गये !
खुला आसमां
तुम्हें लिखती रही , मैं !
अपनी नज़्मों में
तुम्हें ढालती रही मैं !
कभी तुम कुछ कहो न
बसन्त की तरह
खिलते पुष्पों में
पराग की तरह
अपनी सुगन्ध मुझपर
बिखेरो न
गुलमोहर की अंगड़ाइयाँ
लुभाने लगी है , मुझे !
दस्तकें प्रेम की
देने लगी है , मुझे !
शिशिर ऋतु , फिर से
शबनम को बिछा रही है
तृण का कोमल मन
पिघला रही है !
अतृप्त रहा मन
अब तक ...
ये तड़प कर
प्रिया अपने प्रिय को
जाने क्या - क्या समझा
रही है ....